ह्यूमन इम्यूनो डेफ़िशिएंसी वायरस जिसे हम एचआईवी एड्स के नाम से भी जानते हैं, यह 30 सालों में 3 करोड़ों लोगों की जान ले चुका है। अभी तक डॉक्टर इसके बारे में सिर्फ़ जानकरी ही इकट्ठा कर रहे हैं।
कांगो देश के एक बीमार आदमी के ख़ून का नमूना 1959 में लिया गया था, जिस पर कई साल शोध के बाद उसमें एचआईवी वायरस खोजा गया। इसी व्यक्ति को पहला एड्स संक्रमित आदमी माना जाता है। एचआईवी विषाणु की खोज 19 वीं सदी की शुरुआत में जानवरों में की गई थी। ऐसा मत है कि आदमियों को यह विषाणु चिम्पांजी से मिला था।
डॉ माइकल गॉटलीब ने ऐसे 5 रोगियों में एक बिल्कुल अलग क़िस्म का निमोनिया मिला था, और उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता एकदम से घट गई थी। चूँकि ये पाँचों रोगी समलैंगिक थे इसलिए डॉक्टरों ने इसे GRID यानि गे रिलेटेड इम्यून डेफ़िशिएंसी समझ लिया था। इस तरह 1981 में इसकी पहचान हुई थी।
जब स्त्री पुरुष दोनों में एचआईवी एड्स का वायरस मिला, तो 1982 में इसका नाम AIDS यानि एक्वायर्ड इम्यूनो डेफ़िशिएंसी सिंड्रोम रख दिया गया।
एचआईवी एड्स की खोज
1983 में फ़्रांस के वैज्ञानिकों लुक मॉन्टेगनियर और फ़्रांसोआ सिनूसी ने ALC वायरस और 1984 में अमेरिकी वैज्ञानिक रॉबर्ट गैलो ने HTLV3 वायरस की खोज की। 1985 में जब यह साबित हुआ कि ये दोनों वायरस एक ही हैं तो इस खोज के लिए 1985 में मॉन्टेगनियर और फ़्रांसोआ को नोबेल पुरस्कार दिया गया। वही गैलो ने अपनी रिसर्च का पेटेंट करवा लिया। और 1986 में इसका नाम एचआईवो यानि ह्यूमन इम्यूनो डेफ़िशिएंसी वायरस रख दिया।
अब विभिन्न देशों की सरकारें और स्वास्थ्य संस्थाएँ एचआईवी एड्स से सुरक्षा के लिए अभियान करने लगीं और कॉन्डम को परिवार नियोजन से बढ़कर एक एड्स शील्ड के रूप में देखा जाने लगा। इसी के बाद 1988 में 1 दिसम्बर को वर्ल्ड एड्स डे मनाने की घोषणा हुई।
हालाँकि 1987 में पहली बार एड्स की दवा तैयार कर ली गई थी लेकिन इसके बड़े साइड इफ़ेक्ट थे और पीड़ित को दिन में कई डोज़ लेने पड़ते थे। 1990 के दशक के अंत तक बहुत सुधार किया गया और एड्स की जांच के लिए कुछ क्विक टेस्ट भी आए। ओरा क्विक ऐसी ही एक एचआईवी एड्स टेस्ट किट है जो बीस मिनट में एचआईवी एड्स संक्रमण की पुष्टि करती है।
आज एड्स को एक लाल रिबन से दर्शाया जाता है जिसको पहली बार 1991 में स्वीकृत किया गया था। यह एड्स के मरीज़ों को अलग थलग रखने के खिलाफ़ एक अभियान था।
आज यूनाइटेड स्टेट्स मलेरिया और ट्यूबरक्लोसिस की तरह एचआईवी एड्स को भी महामारी की श्रेणी में रखाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि एक करोड़ लोग एंटीरिट्रोवायरल थेरेपी पा रहे हैं, लेकिन 2013 तक बचे हुए 1 करोड़ 60 लाख लोग इससे वंचित हैं। अगर समय पर एड्स का इलाज शुरु कर दिया जाए तो इस महामारी से बचा जा सकता है।
आज भी वैज्ञानिक एचआईवी एड्स की रोकथाम के लिए टीका नहीं बना पाये हैं। एड्स का विषाणु कई प्रकार का होता है और मानव शरीर के इम्यून सिस्टम को ख़राब कर देता है। इस पर रिसर्च अभी भी शेष है।